शहादत के नाम एक ख़त

प्रिय मनोज
ये जो खत आज मैं तुम्हे लिख रही हूँ वो कभी तुम तक पहुचेगा नहीं..न तुम इसे कभी पढ़ पाओगे..लेकिन ये खत निसंदेह एक माध्यम है मेरा, अपने ही भीतर की सुलोचना तक पहुचने का जो तुम्हारे जाने के बाद यादों के अंधेर तहखाने में गुम चुकी थी..।
खत की शुरुआत एक माफी से करना चाहूँगी जो तुम्हारे बाद तुम्हारी सुल्लू को ग़म में डुबोये रखने के एवज में होगी। गहरी उधेड़बुन में थी मैं, सारा समय खुद को अपने खयाली भंवर से बाहर निकाल कर यथार्थ से अवगत कराने में व्यस्त हो गयी थी। समझा रही थी खुद को की ये अकेलापन जो दिल बैठा दे रहा है, इसका वजन अब जीवन भर ढोना होगा मुझे। आज 7 महीने बीत चुके है तुम्हारी शहादत को..हालांकि कोई एक भी दिन नहीं था जब तुम्हारा खयाल अंतर्मन कचोट के न गया हो.. बहरहाल अब समय के साथ मैं जीना सीख रही हूँ। हाँ! अब भी हर रात जब करवट लेती हूं तो बगल में रखा खाली तकिया और सुना बिस्तर काटने को दौड़ता है, लेकिन कुछ घंटों के आँसू, दिल की गहरी बेचैनी और अतीत में तुम्हारे मेरे साथ बिताए समय की यादों के सफर के साथ भोर हो ही जाती है। पहले पहले की रातें बड़ी भयावह थी, हर पल सोचती रहती थी कि तुम्हे लगने वाली गोली कितनी दर्दनाक हुई होगी, क्या स्तिति रही होगी, क्या जाते समय तुमने मुझे याद किया होगा..? और ये सब सोच कर कमजोर पड़ जाती हूँ। लेकिन फिर सामने दीवार पर तिरंगे के साथ टंगी सितारों और मेडलों से लदी तुम्हारी वर्दी दिखाई देती है और समझ आ जाता है के वो जो अटूट साहस तुममें दिखाया उसका स्त्रोत्र उससे कहीं ज्यादा मजबूत और अभेद है। तुम्हारे इस जज़्बे के लिए मेरे पास शब्द कम है। और अब बस तुम और तुम्हारी यादें शेष है आँचल में मेरे.. मुझे आज भी याद है वो आखिरी छुट्टी जो हमने साथ बितायी थी..हमारी शादी की पहली सालगिरह थी वो और हमें मिले कुछ 5 बरस होने को थे। मैं रोते हुए कहने लगी “शादी के 4 महीने बाद ही फील्ड पोस्टिंग पर जाना जरूरी है क्या? कैसे अपनी बीवी को ऐसे अकेला करके जा सकते हो तुम..? “… और तुमने भी filmy अंदाज़ में हस्ते हुए कहा “मेरी प्यारी सुल्लू! मेरी पहली बीवी तो फौज है” और मैंने तपाक से जवाब दिया “हाँ जी! देश तुम्हारी माँ है और फौज तुम्हारी बीवी..हम लोग तो बस यूं ही है”… और बस तब एक बड़ा सा ठहाका लगा के हम दोनों हस पड़े…वो एक दूसरे के साथ हमारी आखिरी हसी थी..अब अक्सर मैं कमजोर पड़ जाती हूं..यही वजह थी इतने महीने से दूर कर लिया था खुद को…लेकिन अब समझ आता है के तुमने देश के लिए जो किया उसका शोक मना कर तुम्हारे बलिदान को छोटा करने का अधिकार तो मुझे है ही नहीं..देश के लिए एक फौजी की शहादत तो किसी पर्व से कम नहीं है, जिसका सम्मान किया जाना चाहिए; जिसका उत्सव मनाया जाने चाहिए..
इस ख़त के जरिये मैं तुम्हारे समर्पण पर गर्व और आभार दोनों व्यक्त करना चाहती हूँ.. हालांकि मेरे लिए तुम्हारी दी हुई धरोहर के बदले मेरे सारे आभार भी कम होंगे। एक चींटी तक जिससे कभी न मारी गयी उसे तुम्हारी शहादत ने ‘वीरनारी’ बना दिया। तुमने मुझमे इतनी हिम्मत भर दी है कि अब जीवन की हर लड़ाई मैं लड़ सकती हूँ.. और हाँ…तुम हमेशा-हमेशा तक मेरे लिए वो योद्धा रहोगे जिसके नाम के साथ नाम मात्र जुड़ जाने से वीर की उपाधि मिल जाती है। तुमसे ये जो सब मिला उसका स्नेह और अथाह सम्मान है मुझे..और प्रेम तो तुमसे हमेशा रहेगा ही..
सदैव तुम्हारी
सुल्लु(सुलोचना)

अखिला और संभावना

प्यारी सहेली अखिला

आशा करती हूँ तुम कुशल हो..खत की शुरुआत एक माफी से करना चाहूँगी की तुम्हारे पिछले 6 खतों के जवाब में बस लंबी चुप्पी भेजी तुम्हे..जीवन की उथल पुथल में इतना व्यस्त थी कि खुद को टटोल कर भी थोड़ा सा समय खुद के लिए निकाल पाने की कोशिश में निरंतर असफल हो रही थी..।

 पिछले बीते 2 साल अत्यंत कठिन रहे मेरे लिए.. तुम तो खैर बेहतर परिचित हो मेरी असफल शादी और उसके बाद के जीवन के मेरे संघर्षों से। अक्सर सोचती हूँ कितनी आसान थी ज़िन्दगी बचपन में..बस क्लासवर्क और होमवर्क में निकल जाए करती थी। कब बड़े होगए हम दोनों.. और क्यों!!  बचपन का समापन भी कितनी दुखद घटना होती है न.. आज भी याद है मुझे वो शुक्रवार जब हम दोनों कॉलेज के बाद फ़िल्म देख मेरे घर लौटे थे एक साथ। कितने खुश थे हम..घर आकर देखा विनीत और उसका परिवार ड्राइंग रूम के सोफे पर बैठा मुझे देख मंद मंद मुस्कुरा रहा था..मेरे रिश्ते के लिए आये थे वे सभी औऱ मेरे पिता ने अपनी सहमति जता दी थी…उसे एकाएक देख मुझे भी प्रसन्नता हूई मन ही मन..लड़का हैंडसम था..बिल्कुल किसी फिल्म के हीरो जैसा।। उसके परे तो फिर कुछ देखा सुना ही नही.. फ़िल्म सी लग रह थी दुनिया.. लेकिन फिर शादी हुई और कुछ ही दिनों में मेरे भ्रम को सच्चाई का धरातल मिला…

अब हर वक्त ये अपराधबोध सताता है कि क्यों मैंने उस दिन शरमा के हामी भर दी थी उस रिश्ते को.. उस एक निर्णय ने मेरे जीवन में अगिनत पीड़ाओं और ग्लानियों कि नींव रखी है.. कोई दिन नहीं जाता अब जब खुद को कोसती न होउ मैं अपने उस निर्णय के लिए.. शादी के बाद शुरुआती झगड़े जब हुए तो उनकी वजह समझ पाना मेरे समझ क्षेत्र से बाहर लगता था… मन किसी गहरे सदमे में था. रोज रोज के बेबात ताने और आक्षेपों ने दिल छन्नी कर दिया था.. फिर धीरे ये आम बात बन ने लगी…लगने लगा मानो सारी शादियां ऐसी ही होती होंगी.. हर दूसरे दिन के झगड़े  और उनके परिणामों के रूप में मेरे चेहरे कमर और कलाई पर पड़े उसकी उंगलियों के निशान अब आत्मा को दागी करने लगें थे.. तब स्वयं को धीरे धीरे मैं अपने ही भीतर खोती जा रही थी..लोगों से ज्यादा खुद से बाते करने लगी थी.. सजीव इंसानो को छोड़ निर्जीव चीजों से बड़बड़ाना आदत बनता जा रहा था। सारा समय खुद से ये सवाल और उसके उत्तर में बीता देती थी कि आखिर मैं कहाँ गलत थी.. और तब तुमने समझाया मुझे की कभी कभी चीजें बस गलत हो जाती है हमारे साथ..। इसका अर्थ यह नही कि हम ही गलत थे। कर्मो का भुगतान हम या कोई भी इन्सान तय नही कर सकता…न ही इसे टाला जा सकता है..ऐसे खुद को कोसना और दोषी ठहराना ग़लत है। ओर मुझे भी तभी समझ आया कि खुद के साथ बुरा होते देखना, उसे चुपचाप सहना और अपने बचाव मे खड़ा न होना उतना ही गलत है जितना की किसी के साथ बुरा करना।औऱ वही पहली बार थी जब मैंने इन सबके विरोध में खुद के लिए आवाज़ उठाई। आज 2 साल के लंबे संघर्ष के बाद जब में आज़ाद हूँ तो वो इसलिये क्योंकि तुम थी मेरे साथ… अपनी सारी तकलीफों के बावजूद भी तुमने मेरा साथ कभी नही छोड़ा..

याद होगा तुम्हे जब मुझे पहली बार तुम्हारी मेडिकल कंडीशन के बारे में ज्ञात हुआ तो कितना मुश्किल था मेरे लिए उसे स्वीकारना। पैरों के नीचे से ज़मीन खिसकने जैसा था वो.. कितना रोइ थी तुमसे लिपटकर मैं..।। अखिला तुम मेरे लिए वो औषधि हो जो इस निर्दयी समाज के कड़वे कटाक्षों के दर्द को कम करने के लिए मुझे हमेशा चाहिये..तुम्हारे जीवन का ये सच मेरे लिए असहनीय था। और उस पल भी तुमने ही मुझे संभाला, मुझे सम्ब दिया के जीवन में विफलता तब तक हमारे पास नही मंडरा सकती जब तक स्वयं हम ही ने हार ना मान ली हो। हम लड़ते रहेंगे तो कुछ भी मुश्किल नहीं है।  और तब मैं जान चुकी थी कि तुम एक योद्धा हो अखिला..मेरी योद्धा.. तुमसे ही मैंने अपने जीवन की लड़ाई को लड़ने और उसे जीतने की प्रेरणा पायी है। तुमसे ही जाना है कि हम दोनों ही अपने अपने जीवन मे कैंसर से झूझ रहे हैं। फर्क बस इतना है कि तुम्हारा कैंसर शरीर के भीतर एक अंग में है और मेरे जीवन का कैंसर एक जीता जागता इंसान हैं।। और ये कैंसर न बड़ा निर्दयी होता है। धीरे धीरे कब अंदर तक खोखला कर देता है भनक ही नही लगती। शुरुआत में छोटा सा फोड़े जैसा दिखता है।।लगता है समय के साथ ठीक हो जाएगा लेकिन जब तक इसके जानलेवा होने का पता चलता है ये हमारा एक बड़ा हिस्सा खा चुका होता है। फिर चाहे वो किसी अंग का हिस्सा हो अथवा जीवन का। इसको हराना है तो इसकी ख़िलाफ़त में आवाज़ उठानी ही होगी। तुमसे ही मैंने अपने इस कैंसर को हराने का हुनर सीखा है।

मैं अक्सर कहती थी के मुझे जीवन मे बस इस बात का मलाल रहेगा कि मुझे सच्चा प्रेम नहीं मिला। वही जैसा किताबों में पढ़ा था जैसा फिल्मो में देखा था हमने। में कितना चाहती थी वो सब महसूस करना… चाहे कुछ दिन या महीने के लिए ही सही पर मुझे एक बार बस गुजरना था उस प्रेम गली से जहाँ सब कुछ इंद्रधनुष जैसा रंगीन हो , जहाँ दिन और रात का फर्क महसूस न हो, जहां भूख प्यास सुध सब कुछ दूसरी सीढ़ी पर आता हो और पहली सीढ़ी पर आता हो अप्रतिम प्रेम.. पर अब समझ चुकी हूं कि बचपना ही था वो मेरा, जो नहीं था उसकी कल्पना और चाहत में मैं इतनी व्यस्त हो गई  थी के जो साक्षात मेरे  सामने था उसे कभी देख ही नहीं पाई। क्योंकि अब जब मैं तुम्हारे-मेरे बारे में सोचती हूँ  तो लगता है कि किताबो और फिल्मों वाला प्रेम तो मैं निसंदेह  न पा सकी लेकिन तुमसे ये जो अथाह और निर्विवाद प्रेम मिला ये स्वयं में ही कितनी किताबों की भूमिका बन सकता है।  तुमने मुझे तब संबल दिया जब मैं स्वयं खुद के लिए खड़ा होने में हिचकिचा रही थी। तुमने अपनी लड़ाई लड़ते हुए भी मुझे मेरे जीवन के संघर्षों में कभी अकेला नही छोड़ा।  तुम मेरे लिए एक योद्धा हो और सदैव रहोगी। जिसने मुझे स्वयं में विश्वास करना सिखाया, जिसने अपनी इस जंग में न सिर्फ मुझे लड़ने बल्कि जीतने के लिए प्रेरित किया।  तुम्हारे मेरे बीच के इस रिश्ते की लंबी उम्र की प्रार्थना में सदैव..

तुम्हारी

संभावना

ज़रा रुकिये!!

अलाव में बची आग की

थोड़ी महक आई है..

वो चौथे मक़ान की गुलरेज ने

आज आवाज़ उठाई है

अभी तो उठेंगे कितने हाथ, ज़रा रुकिये….।

अभी नाज़ुक है बेहद हालात, ज़रा रुकिये…।

बिकने से परहेज उसका

हुक्मरानों को प्यारा नहीं

तेज आवाज तीखे कटाक्ष,

तमीज़दारो को गवाँरा नहीं.,

अभी तो होना है तमाशबीनों की महफ़िल का आगाज़

ज़रा रुकिये..।

अभी तो खुलेंगे सबके राज़, ज़रा रुकिये..।।

संगिनी

क़दम क़दम पे तुम्हारी ज़िन्दगी के

मैं साथ साथ चलती रहूंगी

अहसास तुम्हारे पास होने का

मैं हरदम करती रहूंगी..

तुम्हारी हर आह पे मेरा दिल वेदना करेगा

तुम्हारी हर वाह पे मेरा दिल नाज़ करेगा

तुम हो हर पल मेरे पास, मैं यही सोचती रहूँगी

क़दम क़दम पे तुम्हारी ज़िन्दगी के

 मैं साथ साथ चलती रहूँगी..

तुम्हारी हर सांस में मेरा ही संदेश, 

तुम्हे नज़र आएगा

जियोगे जिस तरह से तुम जीवन, 

वैसा ही मेरा बन जायेगा

तम हो मेरी हर एक बात, 

मैं तुम्हे बोलती रहूँगी

क़दम क़दम पे तुम्हारी ज़िन्दगी के 

मैं साथ साथ चलती रहूँगी..

बनकर झोंका मैं हवा का

 हर पल तुम्हे छूकर गुजरूंगी,

बनकर तुम्हारे लहू की बूंद, 

हर क्षण तुम्हारे दिल से बहूँगी..

दूर चाहे जितना हो लो, 

मैं तुम्हारा साया बन जिऊंगी

क़दम क़दम पे तुम्हारी ज़िन्दगी के

मैं साथ साथ चलती रहूँगी..

जोगन

“……. क्या कहा मैंने.. सुना भी था कुछ!! 

दो बरस हो चुके है उसको गए, रुआँसी इस तरह कब तलक आखिर यूँ इंतजार में बैठोगी, मैं कहती हूँ लड़का अच्छा है, सरकारी नौकरी है, घर बार बढ़िया है शहर में रहता है। तुम्हे क्या चाहिए ज़िन्दगी से और। आखिर कब तक यू मीरा का जोग ओढ़े इंतजार करोगी उस परदेसी का जिसे पता भी नहीं के तुम उसके लिए सन्यासिन हुए जा रही हो.. उसे परवाह होती तो लौट कर आता कोई चिट्ठी पत्री कोई खैर ख्वाह कुछ तो लेता.. क्यों उसके पीछे पगली सी बैठी हो यूँ. जवाब दो। हर बार पूछने आती हूँ  कुछ तो क्यों ऐसे आंखे पथराए मुह में साँप दबाए बैठी रहती हो सुन्न सी।।कुछ तो कह दो लड़की…

हद है!! और बेशर्म, ये वही दुपट्टा है ना जो वो नालायक दे गया था, सारे रोग की जड़ यही है तो आ आज इसके चिथड़े करके  जला ही आती हूँ.. क्लेश ही खत्म हो. नासूर कर दिया है इसने मेरे भीतर एक, जवान बेटी के ऐसे जोग की टीस खा जाएगी मुझे एक दिन.. “

“ये चमड़ी भी उधेड़ ले जाओ माँ, उसकी छुअन मेरे बदन में महकती है अब, या यूं करो एक अंगार की तगारी यहीं ले आओ.. तुम और मैं दोनों मुक्त हो जाए अपनी अपनी टीस से”..

बेबाक़ी

वो सुनते नहीं मैं कहती जाती हूँ
बस कहने की धुन में रहती जाती हूँ
जो बंधन बेड़ियोँ को तरह जकड़ते है मुझे
तोड़ती हूँ उन्हें, और बदनामी सहती जाती हूँ
हाँ मैं हंसती हूँ तो लगता है कोई आतंक छाया है
लिपस्टिक का गहरा लाल रंग मुझे मेरे ही लिए भाया है
देर रात की सैर पर जाना और रेड़ी पर आइस क्रीम खाना
क्यों सब ने मेरे शौक पर इतना बवाल मचाया है
वो जो अलमारी में कशीदे वाली शाल के पीछे बैकलेस ड्रेस धरी है
हाँ वही जिसे ना पहनने के सुझाव में सबने भी हामी भरी है
वो बस एक कपडे का टुकड़ा है, मेरी आज़ादी की चाबी नहीं
थोड़ी सी रिवीलिंग ड्रेस है बस, मेरे करैक्टर की खराबी नहीं
ये कोई क्यो नहीं बताता के मुझपे ये सवाल उठाया क्यों
नजरे नीची हो, हल्के बोलना है, जल्दी उठना है
ये सारे नियम कहीं लिखे है क्या, ये सब मन मे आया क्यों
ऊँचा बोलना मुझपे, लगता उन्हें अपना अधिकार कैसे
सुझाव देना ठीक है, पर मेरा इनकार उनका अपमान कैसे
मैं चुप हूँ तो संस्कारी, और बोल उठी तो बदतमीज
समाज को ये सारे बेसिरपैर के नियम है बड़े अजीज़
कहते है! सजो धजो औऱ पुतले सी कोने में बैठ जाओ
अरे भाई नॉर्मल लड़की हूँ या कोई सजावट की चीज
पर खैर!
वो सुनते तो नहीं है..पर मैं कहती जाती हूँ,
फिर अपनी ही धुन में रहती जाती हूँ..।

हिसाब

माँ!!!

तुम्हारे जाने के बाद कितना कुछ बदल गया है। जो सच है धरातल पे मेरे समक्ष उसको स्वीकारना इतना मुश्किल होगा मैं नही जानती थी। तुम्हारा चले जाना, यूं अचानक मेरे लिए मान लेना कठिन है। कैसे मान लू माँ के जो नेह नज़र तुमने हर पल मुझपे टिकाए रखी वो अब कभी मेरी तरफ देखेगी नहीं। मैं कैसे मान लूं के एक दिन अचानक ऐसा आजाएगा के तुम नही होगी मेरे साथ। तुम्हारे जाने के बाद का ये वात बोहत ही घना और काला है। तुम तो जानती हो माँ मेरा अंधेरे से डर कितना गहरा है.. तुम्हारे जाने के बाद का खालीपन कभी भरा नही। घुटन होती है के कोई बात हो मन में तो किसे कहूंगी। तुमने ये जाते समय काश सोच होता। सोचा क्यों नहीं तुमने के तुम्हारे दुख में रोइ मैं तो कौन चुप कराएगा। माँ तुम भी बाकी सब की तरह निकली।  तुमसे मिल कर लड़ने का खूब मन करता है अब.. शायद मन की बेचैनी तब शांत हो जाएगी।

माँ तुम मायके से मेरी सबसे बड़ी उम्मीद थी। अब हर रात तकिये पे पलके टिकाए हिसाब यही लगाती हूँ की तुम्हारे साथ मेरा और क्या क्या गया..।

~खयाली बहीखातों के मुनाफ़ घाटे

शायरी

आँख मुकम्मल सबको लेकिन ख़्वाबों की तक़सीम कहाँ
सबके हिस्से रात तो है, पर सबके हिस्से नींद कहाँ..
मज़हब बंटा दायरे बंधे और रंगों का बंटवारा हुआ
बकरी चढ़ी भद्र काली को बकरा अल्लाह को प्यारा हुआ.,
जो भूखे से रोटी बाँटे ऐसा ईमान ओ दीन कहाँ
सबके हिस्से रात तो है पर सबके हिस्से नींद कहाँ..।

गिरता हुआ पर्दा

हम एक दूसरे के लिए सही नहीं थे। वो  सारी कविताएं जो तुम्हारे नाम को सुपुर्द थी वो सभी आईना थी मेरी भावनाओ का तुम्हारे लिए..मगर उनके मायने अब बदल चुके है।

अब मैं नदी के उस पार हूँ जहां बस एक वात है जो भरता नहीं है, यहाँ मैंने अपने भीतर डरावनी यादों के ख़यालो से सराबोर गहरा समंदर बटोर के रखा हुआ है, जो के किसी भी रिश्ते को डूबा देने के लिए काफी है.. हमारे इस रिश्ते में अब तैरने की गुंजाइश ख़त्म हो चुकी है…

कोई भी रिश्ता ना तभी तक फिर से पनपने लायक होता है जब तक उसके खत्म हो जाने की पीड़ा को पूरी तरह से जी न लिया गया हो..एक बार उस पीड़ा को जी लिया तो फिर पीछे मुड़ के देखना निरर्थक है। वेदना अपने नियम शर्तों के साथ आती है, विलाप अपने साथ कितनी ही मांगें लाता है और रिश्ते के खत्म होने का संताप चारो तरफ वीराना फैला देता है। फिर वहाँ बचती है एक बंजर उजाड़ ज़मीन जहाँ  फिर से उसी पुराने रिश्ते के अमलतास खिलने तो कतई मुमकिन नही होते.. ठीक वैसे ही मैंने भी तुम्हारे मेरे रिश्ते को मरते हुए, या यूं कहो कि मर चुका महसूस किया है.. इसका शोक मैने खुद जीया है और ऐसा रोया है मानो सब कुछ जा चुका है। अब फिर से इस रिश्ते को हरा होते देखना मेरे लिए आसान नहीं है। वैसे भी सालो पुराने सिले हुए रिश्ते जब उधड़ने लगते है तो कोई टांक उनको इतनी खूबसूरती से सिल नहीं पाती जितना खूबसूरत वो पहले थे.. रफू बेशक़ उनको पहले जैसा तो दिखा देता है,  फिर टांको का जाला चाहे दूर पास से नज़र भी न आये लेकिन उसकी चुभन और अटपटापन अंदर महसूस होता रहता है, और हमेशा याद दिलाता रहता है के यहाँ एक जोड़ था पहले जो अब उधड़ चुका है। कैसे उधड़ा, कितना और किस किस तरह से… ये सारा कुछ किसी सिनेमा की तरह जेहन के पर्दे पर चलता रहता है हर क्षण। तब तुम पुरानी दरारों में, और पुरानी मेखों की चुभन को जोड़ते जाते हो और फिर बस, कुछ ही समय में सारा का सारा रिश्ता लहूलुहान हो चुका होता है…तार तार एकदम.. उसके चिथड़े समेटने में फिर उम्रे लग जाती है।

जॉन कह के गए है “कौन इस घर की देखभाल करे, रोज एक चीज़ टूट जाती है यहाँ”.. हमारे इस घर मे भी सब कुछ टूट रहा है रोज, चंद ही साल हुए है रिश्ते को और ये भरोसे का तार भी टूट गया देखो. प्यार का धागा बचा था आखिरी एक.. और जिस पल ये प्यार ख़त्म होता है, किसी के लिए दम छूटने जितनी पीड़ा देता है, प्राण नही बचते फिर भीतर और महसूस नही होता कुछ और। सुन्न होजाता है सब कुछ, शरीर दिमाग समय सब। लगने लगता है मानो सब रुक गया हो, दिनों ने ढलना छोड़ दिया हो ,रातें सुबह से रूठी है और जीवन एकदम बेज़ार हो गया है। और जिसने ये सब देख लिया उसके सारे प्रश्न फिर बेमायने हो जाते है और उनके उत्तर बीहड़ो में भटक कर खो जाते है, फिर कभी न मिलने को.. हमारा भी ये रिश्ता भटक गया है कहीं अब..हम में से तुम और मैं बच गए है सिर्फ…इसका बोझ हमेशा ढोना होगा। खिले हुए रिश्तों से ज्यादा वज़नी लगते है मरे मुरझाए हुए रिश्तें… लाशों का वज़न अक्सर ज़िंदा आदमी से ज्यादा होता है….।

~गिरते हुए पर्दे से झलकता दृश्य

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