जोगन

“……. क्या कहा मैंने.. सुना भी था कुछ!! 

दो बरस हो चुके है उसको गए, रुआँसी इस तरह कब तलक आखिर यूँ इंतजार में बैठोगी, मैं कहती हूँ लड़का अच्छा है, सरकारी नौकरी है, घर बार बढ़िया है शहर में रहता है। तुम्हे क्या चाहिए ज़िन्दगी से और। आखिर कब तक यू मीरा का जोग ओढ़े इंतजार करोगी उस परदेसी का जिसे पता भी नहीं के तुम उसके लिए सन्यासिन हुए जा रही हो.. उसे परवाह होती तो लौट कर आता कोई चिट्ठी पत्री कोई खैर ख्वाह कुछ तो लेता.. क्यों उसके पीछे पगली सी बैठी हो यूँ. जवाब दो। हर बार पूछने आती हूँ  कुछ तो क्यों ऐसे आंखे पथराए मुह में साँप दबाए बैठी रहती हो सुन्न सी।।कुछ तो कह दो लड़की…

हद है!! और बेशर्म, ये वही दुपट्टा है ना जो वो नालायक दे गया था, सारे रोग की जड़ यही है तो आ आज इसके चिथड़े करके  जला ही आती हूँ.. क्लेश ही खत्म हो. नासूर कर दिया है इसने मेरे भीतर एक, जवान बेटी के ऐसे जोग की टीस खा जाएगी मुझे एक दिन.. “

“ये चमड़ी भी उधेड़ ले जाओ माँ, उसकी छुअन मेरे बदन में महकती है अब, या यूं करो एक अंगार की तगारी यहीं ले आओ.. तुम और मैं दोनों मुक्त हो जाए अपनी अपनी टीस से”..

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